बचपन के खिलौने
कई सालो बाद आज एक पुराने दोस्त से मुलाक़ात हुई, वही पास ही उसका घर था, जिद करके वो मुझे अपने घर ले गया, बोला साथ कॉफ़ी पिएँगे, अब कॉफ़ी के लिए कैसे माना करता, सोचा बड़े दिन बाद मिले है, चलो एक कॉफ़ी के बहाने दो बात कर लेंगे…
कुछ मिनट चलने के बाद हम उसके घर पहुँचे, उसका घर काफ़ी बड़ा और organised था, मैंने उसे मेरी कॉफ़ी की रेसिपी बताई, वो कॉफ़ी बनाने किचन में गया। लीविंग रूम में एक काँच का बड़ा शोकेस था जिसमें कई खिलौने रखे थे, जो काफ़ी नए से थे और महँगे भी लग रहे थे…दोस्त जब कॉफ़ी लेके आया, मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछ लिया – यार तेरे घर में कोई बच्चा भी नहीं, तो ये खिलौने किसके है?
वो बोला “ये मेरे बचपन के खिलौने है, मेरे पाप का विदेश आना जाना रहता था, तो अलग अलग देशों से वे खिलौने लाया करते थे।”
“ये अब तक नए जैसे लग रहे है, तू इनसे कभी खेला नहीं?”
इस पर वो थोड़ा रुका और बोला – खिलौने विदेशी और काफ़ी महँगे थे, हम इन्हें सम्भाल के रखते थे, पापा ने बोला जब मै आऊँगा फ़ुरसत से सम्भाल कर खेलेंगे, उन्हें कभी फ़ुरसत मिली नहीं और मेरी इनसे खेलने की उमर निकल गई। ये खिलौने मुझे उस बचपन की याद दिलाते है जो मैंने कभी जिया ही नहीं।
ये सुनने के बाद हम दोनो कुछ देर चुप रहे, और फिर मै अपने घर के लिए निकल गया…
उसकी कहानी अब तक दिमाग़ में घूम रही है, हम अपना कितना वक्त सही वक्त के इंतेज़ार में, एक निर्जीव चीज़ जो खर्च करने के लिए ही थी उसे सम्भाल के रखने में ज़ाया कर देते है, चाहे वो खिलौना हो या पैसा।
कितने पल जो हम जी सकते थे, कितनी बातें जो हम कर सकते थे, कितनी यादें जो हम बना सकते थे, पर नहीं बनाते, सिर्फ़ सही वक्त के इंतेज़ार में और वक्त बस गुजरता रहता है, हम बस दौड़ते रहते है…
अब शायद लाक्डाउन ने थोड़ा ठहर के सोचने का, कुछ पल जीने का मौक़ा दिया है, चलो जीते है, चलो बातें करते है, चलो यादें बनाते है।